फड़कती हुई लौ सा,
रोशनी में बदलना चाहता हूं,
जीवन के आखिरी दौर में,
कुछ अच्छा करना चाहता हूं।
बहुतों को निराश देखा है,
सब होते हुए भी, उदास देखा है,
सच कहते थे वो दो पल की जिंदगी है,
मैंने तो इस दूसरे पल का भी विनाश देखा है।
मेरी राशि कब रोग बन गई,
ना मिला मुझे कोई संकेत,
जब अचक हालत बिगड़ गई,
तब यकायक मिला संदेश।
अब तो हर सांस बोलती है,
मानो समय का अभाव बता रही हो।
मैं भी कभी-कभी पूछ ही लेता हूं उससे,
कि तुम कब मुझे छोड़ के जा रही हो?
दिन तो कट जाता है सब के बीच,
अपनी हालत पे कभी कभी हंस भी लेता हूं।
रात को अकेला न पड़ जाऊं इसलिए,
दुख, डर और गुस्से को साथ रखता हूं।
सच कहते थे वो कि अति होती है बुरी,
मैंने ज़्यादा इकठ्ठा करने में ज़िन्दगी लगा दी पूरी।
अब ना चाहते हुए भी cells की अति रोक ना पाया,
एकत्रित करने की आदत से खुद को stage 3 पे पाया।
अब कमज़ोर हो रहा हूं,
जब जिंदगी जीना चाहता हूं।
तब समय को पीछे छोड़ देता था,
जब बदन को काम से तोड़ देता था।
लोग आते हैं मिलने, हो जाते हैं उदास,
रोज़ रोज़ होने को बात होती नहीं कुछ खास,
वही बिस्तर, वही कमरा, अब उठा भी नहीं जाता,
ज़्यादा प्यार जान बूझ के अब जता भी नहीं पता।
कैसे जियेंगे सब मेरे बिना,
क्या मेरी खाली जगह भर पायेगी?
या सबकी जिंदगी, एक ब्रेक के बाद,
वापस वैसे ही चलती जाएगी?
बस बचे हुए समय में कुछ और रंग भर दूं,
इस कलम की बची हुई स्याही से,
फिर चैन से आंख बंद कर के,
दोस्ती कर लूं इस नए हमराही से।
-वेदान्त खण्डेलवाल