हम चुप हैं जब बोलना चाहिए, और बँटे हुए हैं जब एक होना चाहिए।
सोचो... क्या हम कंकर हैं या पर्वत?
भारत की मिट्टी पुकार रही है —
जागो, एक बनो, वरना इतिहास दोहराएगा।
यह कविता साहित्य और विज्ञान के बीच के अंतर को दर्शाती है। कवि कहता है कि साहित्य में एक जादू है जो विज्ञान की सीमाओं को पार कर सकता है। वह कहता है कि साहित्य हमें अपनी यादों में ले जा सकता है, हमें समय में उड़ने की ताकत दे सकता है, और हमारी सोच को बदल सकता है। कवि यह भी कहता है कि साहित्य हमें अपनी रूह को छूने की ताकत देता है।
कविता का मुख्य संदेश यह है कि साहित्य विज्ञान से अलग एक अपनी दुनिया है, जो हमें नई दृष्टिकोण और अनुभव प्रदान कर सकती है।
मैं मिर्ज़ापुर के झरनों से हूँ,तुम बनारस की गलियों से.मैं विंध्य पर्वत का वासी हूं,तुम शिव की पवित्र काशी से। घाटों घाटों में खो जाऊं,गंगा से अक्षर पहुचाऊं,मैं शक्ति का, तुम भोले की,नगरी-नगरी की जोड़ी थी. मैं आधा था, तुम बाकी थी.मैं मिर्ज़ापुर, तुम काशी थी। मैं मिर्ज़ापुर के झरनों से हूँ,तुम बनारस की गलियों […]
एक बालक का घर था तोड़ा बीच सड़क उसको था छोड़ा सर्द, गर्म, बारिश, हर मौसम बिन छत, बिन घर, तकते रहे हम। घर के ऊपर, घर के पत्थर, से ही बना दी बाबर मस्ज़िद, बालक देख देख मुस्काया, ये कैसा मज़हब, कैसी ज़िद? सालों साल बालक ने बिताए, बाहर हो के अपने घरों से, […]
यह कविता समय की परिस्थितियों की और जीवन की सीम्प्लिसिटी को पकड़ती है, जो आधुनिक दुनिया की जटिलताओं में खो गई है। पंक्तियों में दिखाए गए चित्रण और भावनाएँ जीवंत हैं और संबंधित हैं।