कंकर या पर्वत?

तुम पढ़ लिख के भी अनपढ़ हो,
भारत होगा सोने की चिड़िया,
पर तुम मात्र एक कंकर हो।

तुम खुश होते हो, जब विदेश में,
मूल हमारा खिलता है।
पर वही यहाँ जब बढ़ता है,
तुमको आँखों में गड़ता है।

तुम खुश होते हो,
जब विदेश में, साफ सड़क पर फिरते हो,
पर यहाँ देवों की भूमि पे,
तुम कचरा कितना करते हो!

तुम पढ़ लिख के भी अनपढ़ हो,
भारत होगा सोने की चिड़िया,
पर तुम मात्र एक कंकर हो।

तुम कहते हो,
कुछ ठीक नहीं,
परदेश यहाँ से बेहतर है,
अर्थ (व्यवस्था) वहाँ जब गिरती है,
तुम दौड़े वापस आते हो,
तुम बिन पेंदी के लोटे हो,
तुम सोच में काफ़ी छोटे हो।

भारत है समूह अनेकों का,
बोली भाषाएँ अनेक यहाँ,
तुम होते कौन हो, भाषा पे,
लड़ने वाले, चढ़ने वाले?

जब अंग्रेज़ यहाँ कोई आता है,
तो आगे पीछे तुम फिरते हो,
पर अपने देश के भाषी से,
तुम मारा-पीटी करते हो?

तुम पढ़ लिख के भी अनपढ़ हो,
भारत होगा सोने की चिड़िया,
पर तुम मात्र एक कंकर हो।

अंग्रेज़ों ने ये समझा था,
और मुग़लों ने ये जाना था,
कि फूट डालना यहाँ कोई,
बहुत कठिन सा काम नहीं।

ना जाने कितनौं को इन्होंने,
काटा और जलाया था,
ना जाने कितनौं से इन्होंने,
थूक तक चटवाया था,
कितनों को निर्वस्त्र करके,
पूरे गाँव में घुमाया था।

बस जात-पात पे लड़ मारो,
बोली भाषा पे लड़ मारो,
कोई पिछड़ा है, कोई अगला है,
कोई गोरा है, कोई काला है।

बुद्धिहीन तुम, क्या जानो,
कितनी छोटी ये बातें हैं,
पढ़ लिख के क्या करना है,
जब इनसब में ही पड़ना है।

हम एक जो न हो पाएंगे,
आपस में लड़ मर जाएंगे,
शिवाजी जैसे महापुरुषों का,
जीवन व्यर्थ कराएंगे।

गर कुछ बुद्धि अभी बाकी है,
तो आपस में लड़ना बंद करो,
और असामाजिक तत्वों का,
तुम पक्ष लेना भी बंद करो।

धर्म तुम्हारा जो भी हो,
बस सोच सनातन रखना तुम,
आँखें दिमाग अब खोल के बस
सत्य का जीवन जीना तुम।

वैसे तो तुम हो कंकर ही,
पर मिल जाओ तो पर्वत हो,
कंकर पिस के रह जाता है,
पर्वत की पूजा होती है।

अब तुम पर सब कुछ निर्भर है,
कि करना तुम क्या चाहते हो?
कि कैसे भारत देश को तुम
अगली पीढ़ी को देना चाहते हो?

वेदान्त खण्डेलवाल

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