माँ मेरी थी गणित में कच्ची,
बोल बराबर खाती थी,
मुझको 2 रोटी खिला के,
खुद वो आधी खाती थी।
माँ मेरी थी गणित में कच्ची,
बोल बराबर खाती थी,
मुझको पूरा आम खिला के,
खुद गुठली ही पाती थी।
ना जाने क्यों पैदल जाती,
शायद कुछ पैसे बच जाते,
पर फिर जब वो वापिस आती,
कुछ ना कुछ खाने को लाती।
खुद पे कुछ ना खर्चा कर के,
हम पे सब वो करती थी,
उसमें से भी कुछ बचा के,
बचत का खाता भरती थी,
माँ मेरी, बिल्कुल साधारण,
फिर भी अलग वो दिखती थी,
सबसे सुंदर, सबसे अच्छी,
सबको साथ वो रखती थी,
शायद थी, सुनने में कच्ची,
सब के ताने सुन जाती थी,
अपने “मैं” को भूल-भाल के,
फिर से काम में लग जाती थी।
ना जाने क्या क्या झेला था,
पर सब पच कर जाती थी,
अपनी प्यारी मुस्कान के पीछे,
ना जाने क्या छुपाती थी।
माँ मेरी थी गणित में कच्ची,
बोल बराबर खाती थी,
मुझको 2 रोटी खिला के,
खुद वो आधी खाती थी।
वेदान्त खण्डेलवाल