नौकरी

कॉर्पोरेट जगत की चमकती दुनिया के पीछे, एक ऐसी वास्तविकता छुपी हुई है जो अक्सर अनसुनी कर दी जाती है। यह कविता एक युवा पेशेवर के संघर्षों को उजागर करती है, जो आधुनिक रोजगार की कठोर दुनिया में अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रहा है। यह कविता महत्वाकांक्षा के पीछे छुपी निराशा और अवसाद को दर्शाती है, और हमें काम और जीवन के बीच संतुलन की महत्ता को समझने के लिए प्रेरित करती है।

सपना था की बड़े firm में,
मैं जा के कुछ कर पाऊं,
पढ़ लिख के, मेहनत कर के,
अपने बल पर कुछ बन पाऊं।

T.V. में देखा था,
Office में सब कैसे जाते थे,
सूट-बूट और ठाठ बाठ से,
अच्छे पैसे कमाते थे।

ख़ूब पढ़ा, exam दिया,
और कठिन परीक्षा पास किया,
फ़िर interview दे दे के मैं तो,
शहर के रस्ते नाप लिया।

Notification आया एक दिन,
खोला बिन एक सांस लिए,
लिखा था, “WELCOME”, “CONGRATULATIONS”,
और कुछ कागज़ साथ में थे।

मैं खुश, घर वाले भी खुश,
अब दफ्तर की तैयारी थी,
पैंट शर्ट iron कर के,
और बूट पे पॉलिश मारी थी।

जहां लगी थी job ये मेरी,
नाम बहुत था brand का,
पहले दिन gift voucher दे के,
स्वागत मेरा grand हुआ।

कुछ दोस्त बने,
कुछ अकड़ में थे,
कुछ boss बनने की,
तलब में थे।

दिन बदले, हफ़्ते बीते,
पर महिने भर में समझ गया,
कि चमक-धमक ये दूर की है,
जो देखा था, वो वो ना था।

Pressure की ये दुनिया है,
हम cooker में cook होते हैं,
कुछ पक-पक से पक जाते हैं,
कुछ सिटी बन फट पड़ते हैं।

कुछ झेल ना पाते pressure को,
घुट-घुट के वो जीते हैं,
ज़िम्मेदारी का बोझ लिये,
14 घंटे वो घिसते हैं।

जो इसको normal कहते हैं,
CTC में वो बिक जाते हैं,
कुछ समझदार भी, पैसे के आगे,
अकल को बेच खाते हैं।

9 घंटे की नौकरी में सुन लो,
9 घंटे ही काम मिलेगा।
एक्स्ट्रा काम का एक्स्ट्रा पैसा,
बाकी समय परिवार का होगा।

छुट्टी लेने पे ना होगा,
Drama और सुनाना,
“Healthy Work-Life Balance”,
को अब सच में है अपनाना।

मुश्किल है ये, जानता हूँ मैं,
लाचारी है ये सबकी,
1 चला जाए, तो 4 खड़े हैं,
लेने कुर्सी।

वेदान्त खण्डेलवाल

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