राम लल्ला की कहानी

एक बालक का घर था तोड़ा

बीच सड़क उसको था छोड़ा

सर्द, गर्म, बारिश, हर मौसम

बिन छत, बिन घर, तकते रहे हम।

घर के ऊपर, घर के पत्थर,

से ही बना दी बाबर मस्ज़िद,

बालक देख देख मुस्काया,

ये कैसा मज़हब, कैसी ज़िद?

सालों साल बालक ने बिताए,

बाहर हो के अपने घरों से,

राम भरोसे हम रहे,

और राम रहे भक्तों के भरोसे।

फिर रूप लिया मस्ज़िद के अंदर,

कोर्ट कचहरी लगे कई चक्कर,

जीत मिली, पूजा भी हुई,

और शहीद हुए कई कर सेवक।

ना बच्चे, ना देखी औरत,

ना ही बड़े बुढ़ों को देखा,

ख़ून बहा के, मार काट के,

मज़हब आगे, बाकी अनदेखा।

लड़ते रहे हम, बालक की खातिर,

चिढ़ते रहे जो कहते हमें काफ़िर,

सत्य, साहस, और दृढ़निश्चय से,

जीत हुई अब जग जाहिर।

बालक ने लड़ा, और जीता मुकदमा,

रोई घर में बैठी हर ‌इक माँ,

फिर आंसू पोछ, और सीना ठोक,

हुंकार लगाई, बोलो जय श्री राम।

राम लल्ला फिर घर आए,

भक्ति के रंग में सब ढाए,

कहीं दीप जले, कहीं फूल लगे,

सब मुग्ध मगन रह रह मुस्काए।

अब भी आँख मूंद, कुछ लोग कहें,

क्यों मंदिर-मंदिर करते हो?

क्या कहूँ किसे, क्या बतलाऊं,

क्या दिया है इस मंदिर ने हमें?

ये जीत बड़ी, ये सत्य बड़ा,

ये पल उत्सव, जहाँ राम खड़ा,

ये क्षण का नहीं, युगों का है,

ये वक़्त है वीर विजय से भरा।

जय श्री राम

वेदान्त खण्डेलवाल

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