हर घर कुछ कहता है

हर घर कुछ कहता है।

ये कविता मैंने मुंशी प्रेमचंद जी की कहानी “अलग्योझा” से प्रेरित होकर लिखी है। और कुछ अपने जीवन के अनुभव से।

ऐसे कुछ अधूरे, कुछ पुराने, कुछ बूढ़े, कुछ जवान, कुछ जहां अभी कुछ लोग रहते हैं, कुछ जिसको कई दशकों से अकेला छोड़ दिया, कई जहां दिवाली का दीया आज भी जलता है, कई जो मकड़ी के जाल से बहाल हैं।

ये मकान, ये घर, ये चार दीवारें और छत, कहानियां सुनाते हैं… अकेलेपन की। कहानियां सुनाते हैं… अहंकार, धोखे, और नाराजगी की। ऐसा ही एक घर मिला मुझे, जो बहुत समय से कुछ कहना चाहता था, बहुत भरा हुआ, और खाली भी।

समय ले के जब बैठा मैं उस घर के साथ, तो उसने कुछ कहानी, कुछ किस्से सुनाए, जो मैं आपको सुनाना चाहता हूं, उसी घर की ज़ुबानी –

इंसान ने इस धरती के टुकड़े को अपना बनाया,
अपना बना के भी रह न पाया,
न खुद रहा, न पीढ़ी रही,
और ना ही अब छत पे जाने वाली सीढ़ी रही।

जिसे इतने मन से बना रहा था,
और बन्ने के बाद दुनिया भर की चीज़ों से सजा रहा था।
जिस घर का सपना कई साल से देखा जा रहा था,
जो घर शादी और बच्चे होने की खुशी से चमक रहा था।

जहां की दीवार के कानों ने,
घर वालों के काई राज़ सुने थे।
जहां चांदनी रातों में,
भविष्य के काई ख़्वाब बुने थे।

जिस घर को एक समय के बाद शायद भूल से गए थे,
अपनी दौड़-भाग में कहीं पीछे छोड़ गए थे।

फिर जब किसी की शादी पड़ी तो रंग कराया,
वहां डाई लगा के घरवाले बुढ़ापा छुपा रहे थे,
यहां पुट्टी से घर की दरारें।

घर की दरारें तो छुप गईं,
पर मन की खटास का क्या?
जो सीमित घर में, असीमित दूरियां आ रही थी, उसका क्या?

जब अपने पे आ गए,
तो कुछ और मंजूर न था,
वो रिश्ता भी तोड़ दिया,
समाज में कभी जो मशहूर सा था।

अब साथ रहना नहीं हो पा रहा था,
मुझे लगा मुझमें ही कोई दिक्कत थी तब।
क्योंकि लड़े तो आपस में थे,
पर मुझे छोड़ के चले गए सब।

अब तो बस रह रह कर झुक रहा हूं,
कभी गर्व से खड़ा था, अब टूट रहा हूं।
अब तो राह गुज़र यूं बोला करते हैं,
“भूत प्रेत रहते हैं यहां, ऐसा लोग कहा करते हैं।”

अब तो मेरे बचपन का दोस्त,
वो बरगद का पेड़ भी नहीं रहा,
धूप, बारिश, तेज़ हवा,
सब के बीच में एकेले ही खड़ा रहा।

कई साल गुज़र गए फिर,
कोई पूछने न आया।
अब नई पीढ़ी को मुझमें,
सिर्फ पैसा और बंटवारा नज़र आया।

तोड़ देंगे मुझे भी अब,
आधा तो गिर ही चुका हूं,
फिर वही चक्र, फिर से चलेगा,
जो मैं पहले ही कह चुका हूं।

– वेदान्त खण्डेलवाल

Categories:

Archives
Follow by Email
LinkedIn
LinkedIn
Share
Instagram