यह कविता प्रकृति और जीवन से जुड़े अनगिनत प्रश्नों को अपनी पंक्तियों में समेटती है। इसमें बादल, सूरज, पेड़, पानी, चाँद और सितारे—हर तत्व से संवाद है। हर सवाल हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या ये सब अपनी मर्ज़ी से होता है, या किसी अदृश्य नियम से बंधा हुआ है। यह रचना सिर्फ़ प्रकृति का वर्णन नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व की गहराई में उतरने की कोशिश भी है।
गुज़रता ये बादल,
क्या बरसता है खुद से?
कहीं ये हवा तो मजबूर करती नहीं?
ढलता ये सूरज,
फिर उगता है खुद से?
या चर्खी है उसकी जो रुकती नहीं?

कौन अपने फल
यूँ गिरा के बिछाता है?
क्या बीज और ज़मीन का रिश्ता है कोई?
पेड़ ये छाँव से
बचाता है मुझको?
या धूप ये सारी खाना चाहता तो नहीं?

ये पानी जो बहता है,
फिर उड़ के बरसता है,
क्या मर्ज़ी है खुद की,
या विवशता कोई?
ये पंछी जो सागर को
लाँघ के आते हैं,
क्या छुपा के रखते हैं कोई चुंबकीय सुई?

क्या मोर के कुहकने से,
बादल आ जाते हैं?
या बारिश भेज देती है सन्देशा कोई?
क्यों सौंधी सी खुशबू,
यूँ मन को लुभाती है?
या काया हमारी है मिट्टी से बनी हुई?

क्या एक ही चाँद के,
अनेक ये चेहरे हैं?
या आठ उसके भाई,
जो सारे चचेरे हैं?
सितारे भी ये न जाने,
कहाँ जा बरसते हैं?
या वही फिर जनमते हैं,
जो तारे बन जाते हैं?

और छाँव न जाने क्यों
धूप से यूँ डरती है?
दिन पूरा बीते,
बस बच बच वो फिरती है।
जब धूप न आये,
तो देखो ज़रा,
कैसे ये खुल के
घंटों ठहरती है।

और क्या तुमने देखा है,
सतरंगी पुल कैसे,
आता है नज़र जब,
हो बारिश और धूप।
न जाने किसको ये क्या पार कराता है?
पास जो जाऊँ तो,
झिलमिल हो जाता है।

गुज़रता ये बादल,
क्या बरसता है खुद से?
कहीं ये हवा तो मजबूर करती नहीं?
ढलता ये सूरज,
फिर उगता है खुद से?
या चर्खी है उसकी जो रुकती नहीं?
-वेदान्त खण्डेलवाल