पौधों से मैं बातें करता,
ख़ुद ही ज़ोर ज़ोर से हँसता,
सबको नकली सुई लगाकर,
मलहम पट्टी जम के करता।
अपनी धुन में, मगन सा रहता,
ज़मीं पे रह के, हवा में उड़ता।
खुली आँखों से, मैं सपनों की,
दुनिया को जी, खुल के जीता।
डर लगता था बिजली से बस,
और हाँ, रात अंधेरे से,
बाक़ी सब तो दोस्त थे मेरे,
मस्ती खूब सवेरे से।
तारे देख आँख थी चमकती,
टिम टिम सुंदर लगते थे,
गिनते गिनते ना जाने कब,
छोटे हाथ ये थकते थे।
बारिश खूब ज़ोर जब आती,
गलियों में पानी भर जाता,
कागज़ की मैं नाव बनाकर,
घंटों उनको खूब बहाता।
अपनी धुन में, मगन सा रहता,
ज़मीं पे रह के, हवा में उड़ता।
खुली आँखों से, मैं सपनों की,
दुनिया को जी, खुल के जीता।
समय न जाने कैसा था तब,
शायद रुक रुक चलता था,
घंटों खेल खेल हम करते,
दिन फिर भी न ढलता था।
पहर-पहर धूप में फिरता,
फिर भी मन ये जो न थकता,
काली गर्दन, काला मुँह, और,
पसीना सारी जगह से टपकता।
कभी खुद की धुन बनाकर,
सारा दिन बस गुनगुनाता रहता,
कभी किसी धुन को सोच सोच कर,
दिन भर मैं सोच में रहता।
फिर उन गलियों में,
जाने का मन होता है,
आँखों की चमक को,
फिर से पाने का मन होता है।
वेदान्त खण्डेलवाल