कभी मजबूरी तो कभी ज़रुरत। हम में से बहुत से लोगों को घर छोड़ के बाहर रहना पड़ा। कुछ पंक्तियाँ हैं उसी अनुभव के बारे में – घर से निकलते ही
घर से जब पहली बार निकला था,
तो थोड़ा सरल थोड़ा नादान था।
आदत थी सब हाथ में मिल जाने की,
माँ के तुरंत बनाए गरम आलू पराठे खाने की।
जब तक अपने शहर मे था, तो वही मेरी दुनिया थी,
पता नहीं था की मेरी वाली से बहुत बड़ी असल दुनिया थी।
पता तो था ही की एक दिन जाना होगा,
बाहर जा के पढ़ना और फिर पैसे कमाना होगा,
लेकिन कभी बैठ के सोचा न था,
की कैसे होंगे बाहर के लोग और कैसा वो ज़माना होगा।
बताया ना, थोड़ा नादान था,
बुरे लोगो से अनजान था,
सब सीधे साधे से ही थे आसपास,
और वही कुछ गिने चुने ही थे मेरे ख़ास।
खैर, वो समय आ गया,
घर छोड़ने का,
सुविधा की ज़ंजीर तोड़ने का।
कॉलेज में हुआ दाखिला,
उस समय तो सब अच्छा लगा,
लग रहा था घूमने जा रहा हूँ,
पूछना ही भूल गया, की वापिस कब आ रहा हूँ?
माँ आँसू रोक ना पाई,
बार बार आँसू पोछ के गले लगाई।
पापा मन ही मन उदास थे,
सीने में भारी-पन था, और आँखों में नमी,
बोले, बस अच्छे से पढ़ना, किसी चीज़ की नहीं होगी कमी।
वो समय कट ही नहीं रहा था,
रेलवे स्टेशन तक पहुंचना,
ट्रैन से दुसरे शहर जाना,
वहां हॉस्टल में सामान खोल के अलमारी में लगाना,
सोच रहा था वापिस घर जाने का क्या बनाऊं बहाना।
मेरी ही तरह और भी थे वहां,
थोड़े अनजान, थोड़े नादान,
फिर सब जल्द ही दोस्त बन गए,
और शुरू के दिन सब की कहानिया सुन के ही कट गए।
हॉस्टल के बारे में तो लिख ही चुका हूँ मैं पहले,
तो वापिस ना दोहराऊंगा,
अगली कविता में कॉलेज के बाद अकेले रहने के,
अनुभव से आपको मिलवाऊंगा।
आशा करता हूँ आपको ये कविता पसंद आई होगी।
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