कभी होता है न, की किसी को देख के लगता है की ये कुछ अलग ही है, इसके अंदर कुछ अलग करने की चाह है। कुछ ऐसे ही लोगों की कहानी लिखी है इस कविता में।
किस तरह वो अलग राह पे निकलते हैं, अकेले ही। और किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, लेकिन वो दृढ़ निश्चय के साथ टिके रहते हैं।
ये दिशा है अलग सी, जिस ओर मैं चला हूँ।
जिस पथ में खड़ा हूँ, जिस राह पे बढ़ा हूँ।
न कोई आगे ही है मेरे, न पीछे ही यहाँ पे,
न साथ ही है कोई, जिस ओर मैं चला हूँ।

न चिन्ह मार्ग पे हैं,न ही पैर के निशान हैं,
न ध्रुव का है सहारा, जिस राह पे बढ़ा हूँ।
रोका तो बहुत था, हर कोई हस पड़ा था,
उस घड़ी जब मैं निकला, मेरा पाँव थोड़ा फिसला।

न रौशनी ही थी वहां पे, गड्ढे थे हर जगह पे,
जिस ओर मैं चला था, जिस राह पे बढ़ा था।
कच्ची सी वो सड़क थी, मेरी सोच ही अलग थी,
भेड़ों के साथ ना चलने की चाह क्या गलत थी?

ये सोचता था उस पल, गिर जाता था जब थक कर,
उठता फिर दहाड़कर, सपनो को मेरे याद कर।
कुँए से तो मैं निकला, जाना है उस समंदर,
बड़ा है मुझको करना, ना थमूंगा नदी पर।

आशा करता हूँ आपको ये कविता पसंद आई होगी।
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